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फ़ेक न्यूज़: सियासत और साम्प्रदायिकता की ‘नई’ तकनीक

मानव इतिहास के विभिन्न युगों में लोकतंत्र अथवा जनतंत्र की भिन्न भिन्न व्याख्याएँ की गई हैं। इस को सकारात्मक एवम् नकारात्मक दोनों ही दृष्टिकोणों से परखा जा चुका है। एक ओर पुरातन में यूनानी दार्शनिक जनतंत्रीय प्रणाली को विकारी शासन व्यवस्था मानते थे तो दूसरी ओर आज के आधुनिक युग में इसकी अत्यंत सकारात्मक छवि हमारे चिंतन, मनन और संवाद में मौजूद है। 

अब्राहम लिंकन के गैटिसबर्ग व्याख्यान के बाद यह स्पष्ट तौर पर स्थापित हो चुका है कि जनता किसी भी जनतंत्रीय शासन प्रणाली का अक्ष अथवा धुरी होती है।  जनतंत्रीय प्रणाली में ‘जन-प्रतिनिधित्व’ तथा ‘जन-भागीदारी’ के अतिरिक्त ‘सूचना प्रवाह’ तीसरा मुख्य कारक है जो जनतंत्र की कार्यप्रणाली का आधार होता है। जनता निर्वाचन प्रक्रिया द्वारा अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है जो उनको मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए संसद अथवा विधान सभाओं में विभिन्न अधिनियम, योजनाएं तथा नीतियाँ बनाते हैं। जब कार्यपालिका द्वारा इन अधिनियमों, योजनाओं तथा नीतियों को लागू किया जाता है तो इनकी कामयाबी के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें जनता की भागीदारी को सुनिश्चित किया जाए। जनता के प्रतिभाग के बिना किसी भी प्रयोजन का सफल होना मुश्किल होता है। 

प्रतिनिधित्व तथा प्रतिभाग के बाद जनतंत्र में सूचना के प्रवाह की बड़ी महत्ता है। जनतंत्रीय प्रणाली जवाबदेही के उसूल पर आधारित होती है जिसके तहत चुने हुए जनप्रतिनिधि अपने कार्यों तथा नीतियों के लिए जनता के समक्ष जवाबदेह होते हैं। इस जवाबदेही को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए यह लाज़मी है कि सरकारी दफ्तरों के काम काज, उनकी कार्यशैली, उनके साधन व ध्येय इत्यादि की जानकारी जनता को हासिल हो और सूचनाओं का सतत प्रवाह जनता के हितार्थ सुनिश्चित किया जाए। इसी पृष्ठभूमि में हम समझ पाते हैं कि ‘सूचना का अधिकार अधिनियम 2005’ भारतीय लोकतंत्र की अभूतपूर्व उपलब्धि है।

सूचना का अधिकार अधिनियम केवल राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिक्षेत्र में ही सूचनाओं के प्रवाह से सम्बन्ध रखता है। हम यह जानते हैं कि किसी भी जनतंत्रीय प्रणाली में जनता सूचनाएं हासिल करने के लिए केवल सरकारी अथवा प्रशासनिक तंत्र पर ही निर्भर नहीं होती है बल्कि उसके लिए सूचना के अन्य सामाजिक स्रोत भी होते हैं जिससे उसके समाज का वृहत चिंतन तथा प्राथमिकताएं तय होती हैं। लोगों के आपसी मेल-जोल और संवाद से भी सूचनाओं का प्रवाह समाज में होता है। इसके अतिरिक्त जन-संचार के साधनों जैसे रेडियो, टेलीविज़न, प्रेस, एलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा सोशल मीडिया इत्यादि भी सूचनाओं के नए एवम आधुनिक स्रोत हैं। समाज के संतुलन तथा प्रगति के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि समाज के हर सदस्य को हर समय सही सूनचाएं प्राप्त हों; उनको संवाद अथवा समाचारों के रूप में झूठ, प्रपंच, प्रॉपगंडा तथा संवेदनशील सूचनाएं न परोसी जाएं। लेकिन इन अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के विपरीत, पिछले दशक से वैश्विक स्तर पर झूठ, प्रपंच, प्रॉपगंडा तथा आवेशित करने वाली सामग्री का दंश बढ़ता ही जा रहा है। 2011 की मिस्र क्रांति कदाचित वह पहली और अंतिम घटना थी जिस में सोशल मीडिया ने सकारात्मक किरदार निभाया था, उसके बाद सोशल मीडिया, प्रेस व एलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जिस तरह सूचनाओं एवम तथ्यों को तबाह किया गया उसने दुनिया भर के जनतंत्रों को संभवत: क्रूरता और तानाशाही में परिवर्तित कर दिया है। 21वीं सदी में उत्तर सत्य (पोस्ट-ट्रुथ) और फ़ेक न्यूज़ का यह दौर मानव जाति के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है। इस ने न केवल इंसान की समझ को दूषित और उथला किया है बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा एवम उसके गुणात्मक मर्म को भी भ्रष्ट किया है और लोकतंत्र को महज़ वोटों की गिनती और बहुसंख्यकवाद तक सीमित कर दिया है। दुनिया भर में लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के गुणात्मकता से संख्यात्मकता की ओर दुर्भाग्यपूर्ण पलायन की इस स्थिति में अल्लामा इक़बाल के ये शब्द जीवंत एवम सार्थक लगते हैं:

जुम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें

बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते।

फ़ेक न्यूज़ क्या है?

फ़ेक न्यूज़ एक प्रकार का प्रॉपगंडा अथवा पीत-पत्रकारिता (yellow journalism) है जिसका उद्देश्य श्रोताओं एवम दर्शकों को तथ्यों तथा वास्तविकता से भ्रमित करना है। आज के डिजिटल युग में फ़ेक न्यूज़ हमारे सूचना पारिस्थितिकी तंत्र (information ecosystem) में कई रूपों में पैर पसार सकती है। यह लेख, रिपोर्ट, विडिओ, चित्र, मीम (meme), ऑडिओ इत्यादि के रूप में अक्सर पाई जाती है। अत: फ़ेक न्यूज़ की एक समावेशी परिभाषा के रूप में यह कहा जा सकता है कि फ़ेक न्यूज़ एक ऐसी सूचना होती है जो किसी भी प्लेटफार्म पर किसी भी रूप में साझा की जाए किन्तु वह तथ्यों और वास्तविकता से आंशिक रूप अथवा पूरी तरह से खारिज हो। फ़ेक न्यूज़ अथवा प्रॉपगंडा केवल आधुनिक युग की वास्तविकता नहीं है बल्कि इतिहास में भी इसके साक्ष्य मौजूद हैं। ऑक्टेवियन और एंथनी के बीच सत्ता प्रतिस्पर्धा फ़ेक न्यूज़ एवम झूठे प्रचार से प्रेरित थी, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मौलवी मुहम्मद बाक़र को अंग्रेजों के प्रॉपगंडा के कारण ही फांसी लगाकर शहीद किया गया। अंतर केवल इतना है कि प्राचीन काल की अपेक्षा वर्तमान काल में डिजिटल तथा एलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा का प्रसार अत्यंत तीव्र तथा द्रुतगामी है। 

मिसिन्फर्मेशन और डिसिन्फर्मेशन

‘फर्स्ट ड्राफ़्ट न्यूज़’ की क्लेयर वार्डल फ़ेक न्यूज़ को दो भागों में विभाजित करती हैं: मिसिन्फर्मेशन (misinformation) और डिसिन्फर्मेशन (disinformation)। डिसिन्फर्मेशन ऐसी फ़ेक न्यूज़ होती हैं जो जान बूझ कर प्रसारित की जाती हैं जबकि ऐसी खबरें अथवा सूचनाएं जो हम से अनजाने में प्रसारित हो जाती हैं उनको मिसिन्फर्मेशन कहा जा सकता है। डिसिन्फर्मेशन की सब से बहतरीन मिसाल वह लघुकथा है जिस में एक चरवाहा रोज़ अपनी बकरियाँ जंगल में चराने के लिए ले जाता था और जानबूझकर खेत में काम कर रहे किसानों को धोखा देने के लिए ज़ोर ज़ोर से चिल्लाया करता था, ‘बचाओ, बचाओ, बाघ मेरी बकरियों को खा जाएगा’। जब किसान उसकी आवाज़ सुनकर उस की तरफ आते थे तो वह रोज़ हँसकर बोल देता था कि मैं तो मज़ाक़ कर रहा था। अंतत: एक दिन बाघ हक़ीक़त में उसकी बकरियाँ खा जाता जाता है और वह चीखता रहता है, लेकिन कोई उसकी मदद को नहीं आता है! 

मिसिन्फर्मेशन की मिसाल वह लघुकथा है जिसका शीर्षक है, ‘आसमान गिर रहा है’। इस कहानी में एक खरगोश किसी पेड़ के नीचे सो रहा था। अचानक उसे किसी ज़ोरदार धमाके की आवाज़ सुनाई देती है और वह घबराकर यह चीखता हुआ भागना शुरू कर देता है, ‘आसमान गिर रहा है, भागों!, आसमान गिर रहा है, भागो!’ खरगोश की बात सुनकर जंगल के सभी जानवर उसके साथ भागने लगते हैं। अंत में जब वे जंगल के राजा शेर के पास जाते हैं तो शेर पूरे मामले को सुनता है और सभी जानवरों के साथ उस पेड़ के पास जाता है जहाँ खरगोश सोया हुआ था। वहाँ जाकर ज्ञात होता है कि ज़ोरदार आवाज़ किसी धमाके की नहीं थी बल्कि बेल के पेड़ से बेल का भारी फल नीचे गिरा था जिस से सोता हुआ खरगोश डर गया था और अनजाने में मिसिन्फर्मेशन का हिस्सा बन गया था। 

फ़ेक न्यूज़: वैश्विक परिदृश्य 

ऑनलाइन व डिजिटल मंचों पर फ़ेक न्यूज़ का प्रसार बहुत तेज़ होता है। विभिन्न शोधपत्रों में यह दावा किया गया है कि ऐसा ‘फ़िल्टर बबल’ की वजह से होता है। फ़िल्टर बबल डिजिटल मंचों की ऐसी तकनीकी प्रक्रिया है जिस में किसी व्यक्ति की सर्च हिस्ट्री और उसके ऑनलाइन व्यवहार के अनुरूप ऑनलाइन व डिजिटल मंचों पर उसको खबरें अथवा सूचनाएं स्वत: उपलब्ध कराई जाती हैं। इन मंचों पर किसी व्यक्ति का व्यवहार उसकी विचारधारा या विशेष हितों के अनुसार तय होता है। यदि कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक अथवा ध्रुवीकरण से संबंधित सामग्री देख, पढ़ या सुन रहा है तो उसको आगे भी इसी प्रकार की सामग्री उपलब्ध कराई जाती है। इसी कारण अमुक व्यक्ति अपनी विशेष सोच में क़ैद हो जाता है जहाँ उसको अपने मन्तव्य अथवा पक्ष के अलावा किसी दूसरे व्यक्ति का पक्ष सुनना गवारा नहीं होता है। इस स्थिति को ‘एको चेंबर्स (echo-chambers)’ अवस्था कहा जाता है जिसमें मनुष्य अपने पूर्वाग्रहों में क़ैद हो जाता है।

शोध द्वारा ज्ञात हुआ है कि विश्व स्तर पर फ़ेक न्यूज़ एवम प्रॉपगंडा का इस्तेमाल सर्वाधिक राजनीतिक हितों को साधने और ऑनलाइन सामग्री द्वारा धनोपार्जन में किया जाता है। 2016 में अमेरिकी तथा यूरोपीय मीडिया में यह ख़बर प्रकाशित हुई थी कि पॉप फ्रांसिस ने दुनिया को चौंकाया और अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए डोनाल्ड ट्रम्प का समर्थन किया। इससे पहले कि यह साबित हो पाता कि यह ख़बर फ़ेक न्यूज़ का हिस्सा थी, इस को सिर्फ़ फ़ेसबुक पर ही लगभग 10 लाख बार साझा किया जा चुका था। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव से पहले ही नए स्थापित हुए वैकल्पिक मीडिया में ट्रम्प के समर्थन में एक सुनियोजित प्रॉपगंडा चलाया गया था। Chris Layton के अनुसार अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान किए गए प्रॉपगंडा में राजनीतिक हितों के साथ साथ आर्थिक लाभ भी प्राप्त किए गए। डोनाल्ड ट्रम्प के साथ साथ हिलेरी क्लिंटन के पक्ष में भी असंख्य झूठी खबरे प्रकाशित की गयीं। ट्रम्प के समर्थन में प्रकाशित की गई 115 खबरें फ़ेसबुक पर लगभग 3 करोड़ बार शेयर की गयीं जबकि क्लिंटन के पक्ष में प्रकाशित होने वाली खबरों की संख्या 41 थी जिन को फ़ेसबुक पर 76 लाख शेयर हासिल हुए। फ़ेक न्यूज़ के कारोबार में ऑनलाइन मोनेटाइज़्द आमदनी का अंदाज़ा मेसीडोनिया के एक युवा की आमदनी से हो जाता है। इस युवा ने छह महीने में लगभग 60 हजार डॉलर की आमदनी की जो उसके माता-पिता दोनों की सकल आय से बहुत ज़्यादा थी। विदित रहे कि इस युवा के कस्बे में 2016 में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय केवल 4800 डॉलर ही थी। 

एशिया में भी फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा के प्रसार ने राजनीतिक अस्थिरता को प्रेरित किया है। बीबीसी के अनुसार 2015 में चीन में लगभग 200 लोगों को हिरासत में लिया गया। ये लोग कथित तौर पर यह अफवाह फैला रहे थे कि तिअंजिन में एक भयंकर विस्फोट हुआ है और चीन की स्टॉक मार्केट शोचनीय अवस्था में है! इसी तरह 2016 में जकार्ता पोस्ट में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक जकार्ता पूर्व गवर्नर बासुकी पुरनामा के खिलाफ़ प्रॉपगंडा के तहत एक डॉक्टर्ड विडिओ आम किया गया जिस ने उनकी छवि को काफ़ी प्रभावित किया। यह विडिओ नस्लवादी और साम्प्रदायिक था। इसके अलावा ऐसा माना जाता है कि फिलीपींस में Rodrigo Duterte राष्ट्रपति पद फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा के बाद ही हासिल हुआ। 

भारतीय परिदृश्य

1947 में अंग्रेज़ी शासन से आज़ादी मिलने के बाद से ही भारत के लिए लोकतंत्र की राह आसान नहीं रही है और यह स्थिति आज भी ज्यों की त्यों है। आज़ादी के बाद से आज तक भारत लोकतंत्रीय शासन प्रणाली की प्रयोगशाला के रूप में सक्रिय है और दशक दर दशक अपने अनुभवों से सीख रहा है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू के दौर में ग़रीबी, भुखमरी के साथ भारत ने पाकिस्तान और चीन से दो युद्ध देखे हैं, उसके बाद आपातकाल के दौर से गुज़रते हुए भारत ने निजीकरण, उदारवाद व वैश्वीकरण की ‘दुनिया’ में क़दम रखा। 21वीं सदी की शुरुआत में ही भारत मुस्लिम विरोधी गोधरा नरसंहार का गवाह बना और इस नरसंहार से देश में सांप्रदायिकता को एक नई संजीवनी सी मिल गई। पहले दशक के उत्तरार्ध तथा दूसरे दशक में डिजिटल मंचों द्वारा इस सांप्रदायिकता को और अधिक बल मिला।  

डिजिटल मंचों पर प्रसारित की जाने वाली फ़ेक न्यूज़ तथा प्रॉपगंडा ने भारतीय लोकतंत्र के समक्ष एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। इन मंचों पर बहने वाली मुस्लिम विरोधी बयार ने राजनीति का स्वरूप और कलेवर दोनों बदल दिया है, सामाजिक मूल्यों और समरसता की परम्परा को खण्डित किया है, तर्क और विज्ञान पर आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था को आवेश और ध्रुवीकरण से प्रेरित बहुसंख्यकवादी व्यवस्था में तब्दील कर दिया है। ऐसा नहीं है कि फ़ेक न्यूज़ ने हमारे जीवन के अन्य क्षेत्रों को प्रभावित नहीं किया है; हमारे मनौविज्ञान से लेकर आध्यात्मिकता तक इससे प्रभावित हुए हैं, सत्य को वनवास मिल चुका है, मूल्यों का अवमूल्यन हो चुका है, समाज में संवाद और वाद-विवाद की परम्परा खत्म हो रही है, छल, कपट और भ्रष्टाचार बढ़ा है! इन तमाम बातों के बावजूद भारत में फ़ेक न्यूज़ की सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदयिकता है।  

सितम्बर 2017 से 2020 तक ‘दि वायर उर्दू’ पोर्टल पर प्रकाशित हुए हमारे साप्ताहिक फ़ेक न्यूज़ स्तम्भ में हमने पाया कि सोशल मीडिया में फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा से सम्बन्धित खबरों, चित्रों, ऑडियो, विडिओ इत्यादि का प्रसार विभिन्न राज्यों में चुनावों के अनुरूप ही रहा है। देश के नौ राज्यों त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, मिज़ोरम, राजस्थान और तेलंगाना में अलग अलग समय पर विधानसभा चुनाव और समयानुसार ही सोशल मीडिया माध्यमों पर फ़ेक न्यूज़ और प्रॉपगंडा कि सामग्री अथवा विषयवस्तु में परिवर्तन दर्ज किया गया। इस दौरान फ़ेक न्यूज़ की शैली से ऐसा मालूम होता है कि फ़ेक न्यूज़ फैलाने वालों का एक बड़ा समूह पूरी तरह से समर्पित और लामबंद होकर राजनीतिक हिट साधने के लिए यह कार्य अंजाम देता है। चुनाव के दौरान अधिकतर फ़ेक न्यूज़ प्रतिद्वंदी पार्टी और उसके नेताओं को निशाना बनाने के लिए और वोटों एवं चुनावी मुद्दों को साम्प्रदायिक रंग देने के उद्देश्य शेयर की गई। इस अवधि में तक़रीबन 150 खबरों का अध्ययन किया गया जिसमें हमने पाया कि इन खबरों का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 21 खबरें) सत्तारूढ़ दलों के नेताओं ने विभिन्न रैलियों, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, तथा निजी सोशल मीडिया मंचों पर प्रसारित किया। दक्षिणपंथी संगठनों तथा सोशल मीडिया ने सर्वाधिक 52 खबरें प्रसारित की जिनके ज़रिए उन्होंने ने अल्पसंख्यकों (विशेषकर मुसलमानों), दलितों, कॉंग्रेस पार्टी, राहुल गांधी तथा फिल्मी हस्तियों को निशाना बनाया। आश्चर्यजनक बात है कि मुख्यधारा मीडिया के कई संस्थान फ़ेक न्यूज़ प्रसारित करते हुए पाए गए। इन सस्थानों ने तक़रीबन 30 फ़ेक न्यूज़ प्रसारित की। इनके अलावा सरकारी संस्थानों (06), ग़ैर-सत्तारूढ़ नेताओं (07), कार्यकर्ताओं/ कलाकारों/ शिक्षाविदों(14), ग़ैर दक्षिणपंथी मंचों(13) तथा सामान्य सोशल मीडिया यूज़र्स(29) भी इस कृत्य में लिप्त पाए गए। दक्षिणपंथी मंचों के अलावा फ़ेक न्यूज़ के प्रचार-प्रसार में मुख्यधारा मीडिया की भूमिका चिंताजनक है और इसका साम्प्रदायिक स्वरूप उस वक़्त खुलकर सामने आता है जब यह तथ्यों के विरुद्ध जाकर किसी प्रॉपगंडा के तहत कोरोना महामारी के दौरान मुसलमानों को निशाना बनाती है।  

आलिया यूनिवर्सिटी, कोलकाता के शोधकर्ता कैफ़िया लश्कर और मुहम्मद रियाज़ ने 1 मार्च 2020 से 31 अगस्त 2020 के दौरान फ़ेक न्यूज़ निरोधी वेबसाइटों ऑल्ट न्यूज़ तथा बूम लाइव पर प्रकाशित सामग्री की विवेचना की। इस विवेचना में 289 फैक्ट चेक को शामिल किया गया जिस में ऑल्ट न्यूज़ तथा बूम लाइव ने क्रमश: 162 तथा 127 फैक्ट चेक प्रकाशित किए थे। इस अवधि के दौरान प्रकाशित किए गए सभी फैक्ट चेक को दस कूटों (codes) में विभाजित किया गया: (1) साम्प्रदायिक (2) तालाबंदी (3) उपचार (4) राजनीति (5) अर्थव्यवस्था (6) स्वास्थ्य (7) अनुमान (8) जैव-हथियार (9) अंतर्राष्ट्रीय (10) विविध। 

क्रम

विषयवस्तु

संख्या

प्रतिशत

1.

साम्प्रदायिक (Communal)

81

28.02

2.

तालाबंदी (Lockdown)

33

11.41

3.

उपचार (Treatment)

30

10.38

4.

राजनीति (Politics)

21

7.20

5.

अर्थव्यवस्था (Economy)

10

3.46

6.

स्वास्थ्य (Health)

38

13.14

7.

अनुमान (Prediction)

7

2.42

8.

जैव-हथियार (Bioweapon)

5

1.73

9.

अंतर्राष्ट्रीय (International)

54

28.07

10.

विविध (Miscellaneous)

10

3.46

शोध में ज्ञात हुआ कि 289 फैक्ट चेक में 81 फैक्ट चेक सांप्रदायिक फ़ेक न्यूज़ से संबंधित थे। शोधकर्ताओं का मानना है कि कोरोना महामारी के दौरान भारत में मुसलमानों को खासतौर पर चिह्नित किया गया और फ़ेक न्यूज़ व प्रॉपगंडा के तहत उनको ‘कोरोना विलन’, ‘कोरोना सुपर-स्प्रेडर’ जैसे नामों से बदनाम किया गया। इसकी शुरुआत अप्रैल 2020 में तबलीगी जमात मरकज़ मामले के बाद हुई और भारतीय मुसलमानों को कोरोना फैलाने वाले वेक्टर के रूप में पेश किया गया। सोशल मीडिया पर एक विडिओ वायरल किया गया जिस पर यह दावा किया जा रहा था कि इस विडिओ में इंडोनेशिया के कुछ मुसलमान तमिलनाडु की एक मस्जिद में बर्तनों पर अपनी लार लगा रहे हैं ताकि भारत में कोरोना को फैलाया जा सके। जबकि विडिओ का सच यह था कि इसमें दाऊदी वोहरा मुसलमान एक मान्यता के अनुसार बर्तनों से अन्न का एक एक दाना साफ करके खुद खा रहे हैं ताकि अन्न को बेकार होने से बचाया जा सके। इस तरह की बहुत मुस्लिम-विरोधी फ़ेक न्यूज़ को कोरोना की पहली लहर में सोशल मीडिया पर प्रसारित किया गया। इस प्रॉपगंडा में मुख्य धारा मीडिया भी सोशल मीडिया के ढब का अनुसरण करता नज़र आया। 

शोधकर्ता कैफ़िया लश्कर और मुहम्मद रियाज़ का मानना है कि ऐसा नहीं है कोरोना काल में ही साम्प्रदायिक प्रवृति की फ़ेक न्यूज़ को सोशल मीडिया मंचों पर प्रकाशित करना शुरू किया गया है बल्कि इससे पहले भी नागरिकता क़ानून विरोधी आंदोलन की छवि धूमिल करने के लिए भी पहले से ही सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक खबरों को आम किया जा रहा है। हमारे अपने अध्ययन में भी इस बात की पुष्टि होती है कि सितम्बर 2017 से ही विभिन्न विधान सभा चुनावों के दौरान साम्प्रदायिक प्रवृति की फ़ेक न्यूज़ उबाल सा आ जाता है। देश में मुसलमानों की अधिकतर लिनचिंग अफवाहों के बाद ही की गई हैं जिसमें सबसे पहले दादरी के मुहम्मद अखलाक़ को गोमांस की अफवाह के बाद मारा गया था। सोशल मीडिया पर समाज का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज़ी से हो रहा है जिसका शिकार मुख्य तौर पर भारतीय मुसलमान हैं। वक़्त के साथ बहुत सी फ़ेक न्यूज़ निरोधी वेबसाईट अपनी जिम्मेदारियों को निभा रही हैं लेकिन यह दंश निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। इससे स्पष्ट है कि फ़ेक न्यूज़ की यह महामारी केवल निजी प्रयासों से खत्म नहीं हो सकती है, इसके लिए कानून को सख्ती से निपटना होगा और इसके लिए देश की विधायिका व कार्यपालिका फिलहाल तो इच्छाशक्ति जुटाने में असमर्थ हैं। लोकतंत्र को बचाने के लिए न्यायालय, देश और समाज क्या करेंगे, यह तो समय के गर्भ में ही मौजूद है। विचारों और अभिव्यति की आज़ादी लोकतंत्र का अभिन्न स्तम्भ है किन्तु यदि यह ‘आज़ादी’ नैतिकता से ही आज़ाद हो और विकारी चिंतन पर आधारित हो तो यह किसी दैत्य से कम नहीं। अल्लामा इक़बाल के अनुसार:

हो फ़िक्र अगर ख़ाम तो आज़ादी ए अफ़कार

इन्सान को हैवान बनाने का तरीक़ा !

विमर्श अगस्त 2021 अंक में प्रकाशित। 

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